आहिस्ता-आहिस्ता
घड़ी
के काँटो की तरह अब जिन्दगी है
आहिस्ता
– आहिस्ता ।
खुशी
की तलाश में गम मिले ज़्यादा और खुशी मिली
आहिस्ता
– आहिस्ता ।
जब
चाहा अपनों को हाथ थामा गैरो ने।
अब
वो भी छोड़ रहे हैं साथ
आहिस्ता-आहिस्ता
।
शहरों
में भी अब घर कम हैं।
वो
भी ईमारतों की शक्ल ले रहे हैं
आहिस्ता
– आहिस्ता ।
इन्सान
भी अब इन्सान नहीं रहा।
यह
भी पुतले बनते जा रहे है
आहिस्ता
– आहिस्ता ।
Vishal Kaushal
यह मेरी कविताओ की पहली किताब हैं। मैंने अपनी कविताओ के माध्यम से अपनी सोच को कागज पर ब्यान कर रहा हूँ। वक्त गुजरता गया चेहरा बदलता गया सोच बदलती गयी। नए लोग मिले, नए दोस्त बने पर कुछ लोग जिन्हें मैं आज भी याद करता हूँ और जिन्हें मैं आज भी याद हूँ।
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